रविवार, 10 मार्च 2013

अपने आत्मस्वरूप को पहचाने .....

            अपने आत्मस्वरूप  को  पहचाने .....
मनुष्य ने अपने बुद्धिबल से जहां एक ओर भौतिकजगत के अनेक विस्मयकारी
रहस्यों को उदघाटित किया है, वहीं उसने मनोवैज्ञानिक विश्लेषणोंके
द्वारा, अपने अन्तर्जगत की गहराइयों में भी दूर तक उतरने का उपक्रम किया
है। तथापि चेतना का रहस्य, वैज्ञानिकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना रहा
है। आज दुनिया के बुद्धिजीवियों का ,इस विषय में एकमत है,कि चेतन सत्ता
ही सृष्टि का आधारक-नियामक तत्त्व है।जो सूक्ष्मतम और एक रस व्यापक है।
चिरंतन सत्य है,अल्टीमेट पावर है। आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, अल्लाह आदि
उसी के नाम हैं। ऐसा जानते और मानते हुए भी उसके अध्ययन विश्लेषण और
प्रत्यक्षीकरण में, वैज्ञानिक बुद्धि असफल या असमर्थ रही है। वस्तुतः जो
चेतन सत्ता निर्लिप्त भाव से समस्त सृष्टि, समस्त प्राणियों और इनके
मनबुद्धि आदि में स्वयं क्रियाशील है, उसे पकड़ पाने की क्षमता,इनमें भला
आएगी कहां से? वही वही तो है, उसे देखे जाने कौन? बिहारी ने लिखा है-
जगत जनायो जेहि सकल, सो हरि जान्यो नाहिं। ज्यों आखिनु सब देखिए, आंख न देखि जाहिं॥
अपनी आंखों से अपनी ही आंखे कैसे देखी जाय? जिसे बोध होना है,वह भी वही
तो है, जो बोध का विषय है। वही दृश्य, वही दृष्टा भी है। वही ज्ञेय है,
और ज्ञाता भी वही। सृष्टि के सारे स्पंदन उसी से हैं,उसी में हैं।
आध्यात्मिक महापुरुषों ने अपने भौतिक जीवन का मूल्य देकर, इस पहेली का हल
ढूंढा और पाया कि परम चेतन अन्य पदार्थों की भांति आंखों से नहीं देखा जा
सकता। वह अनुभूति का विषय है, अनुभव स्वरुप है।
उस परम सत्ता को देखने या जानने समझने का एक ही उपाय महापुरुषों ने बताया
है कि तुम अपने में ही अपने आप को देख लो, जान लो। तुम्हारा आत्म स्वरुप
ही ज्ञेय है।
श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार- पुरुष का स्वयं को जानना ही ज्ञान है।
यही मोक्ष का स्वरुप है।
"वह परमेश्वर अपने में ही मिलता है।"

इसलिए आत्मस्वरुप को जानने की इच्छा करनी चाहिए।

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