रविवार, 24 नवंबर 2013

अब होनी चाहिए एक “तरकारी” क्रांति ...

देश व समाज की "तरक्की" के लिए अब होनी चाहिए "तरकारी" क्रांति  मौजूदा वक़्त में जिस तरह हरी सब्ज्जियों के कीमतों में बढ़ोत्तरी हो रही है।  देश में सब्ब्जी क्रांति की सख्त ज़रूरत है,
प्याज़, टमाटर मटर जैसी सब्जी को छोड़ दे, तो गरीबों का निवाला माने जाने वाला, उनके हर मौसम का साथी सब्जी की रीढ़ हम सब का आलू भी इस महगाई में आम लोगो को सताने पे तुला है।   यदि  सरकारी आँकड़ों की  माने तो सीजन विशेष में हो रहा कम पैदावार ही इन सबका कारण है।  अगर थोडा ध्यान दे चिंतन करे तो,कीमतों में हो रही वृद्धि को कम पैदावार की चादर से नहीं ढाका जा सकता है।  कई सारे उपाय ऐसे भी है जिन्हें अपनाकर आम जन की थाली में पौष्टिकता परोसी या पहुचाई जा सकती है।  
   


(फोटो: गूगल Image)

यह निर्विवाद है की सब्जियों का प्रभावशाली ढंग से कृषि करने से उत्पादन बढ़ जाता है, लेकिन भडारण की असुविधा के कारण इन हरी सब्जियों को तुरंत बेचने की ज़रुरत होती है।   नतीजन किसान अपने लागत मूल्य से भी कम में अपना उत्पाद बेचने को बाध्य हो जाता है।  ऐसे में उन्हें सिर्फ और सिर्फ हानि  ही होती है, और कृषि क्षेत्र में वे इसे दुबारा नहीं करते।  अब आप ये सोच रहे होंगे की किसान कम मूल्य में अपना उत्पाद बेचता ही  क्यो है? इसका दूसरा पहलू ये भी है की किसान सीधे बाज़ार में अपना उत्पाद नहीं बेचता है।  क्योकि उसके पास और भी ढेर सरे काम होते  है ; और उसके लिए इसके पास समय नही है।  बाज़ार में सीधे उपभोक्ता तक उत्पाद न पहुच पाने के कारण लाभ का पूरा हिस्सा बिचौलिए और फुटकर विक्रेता मिलकर खा जाते है।  जिसके फलस्वरूप छोटे किसानों को लाभ नहीं मिल पता है,
(फोटो: गूगल Image)      
अगर ऐसा ही चलता रहा तो कुपोषण और भी तेजी के साथ हमें जकड़ेगा क्योकि सिर्फ "मिड डे मिल" से ही कुपोषण  को  नहीं जीता जा सकता है।   उसके लिए गरीबो की थाली में भी हरियाली आनी चाहिए।   सब्जियों के दाम बढ़ने जमाखोरी  का दूसरा कारण यह है की, हरी सब्जियां साल भर न पैदा होती है, और न ही  मौसमी होती है।  किसनो को अच्छे प्रकार के प्रमाणिक बीजों की अनुपलब्धता  भी एक कारण है। 
             धरती का सीना चीरकर सोना उगाने वाला किसान बहुत मज़बूत होता है। यदि विवेकशील ढंग से उसकी मदद  की जाये तो वो देश की तस्वीर भी बदल सकता है।  सरकार को चाहिए की कुछ ऐसी निति बनाये की किसान को स्वयं बाज़ार न जाना पड़े।  उसे उसके खेत में या घर पे  ही सब्जियो की कीमत मिल जाये, जिससे वह बाज़ार तक आने जाने में खर्च हो रहे समय व धन दोनों को बचा सकता है।  प्रबंधन का आभाव ही किसानो की मुश्किले बढ़ रहा है।  
     जब डेयरी कंपनिया गाँव-गाँव जाकर दूध इकठा कर सकती है।  तो उसी तर्ज पर गाँवों में से सब्जियाँ  इकठ्ठी  करके उन्हें पास के बाजारों में सहकारी तंत्र द्वारा  बेचा जाये.. इससे फालतू पड़ी सब्जियाँ  गाँवों में सड़ेगी नहीं।  बल्कि आवश्यकता के समय उपयोग में भी आ जाएँगी। हरित क्रांति ,श्वेत क्रांति और भी बहुत सी क्रांतियाँ हुई है हमारे देश में वो भी तब जब इसकी ज़रुरत थी।  अब ज़रुरत है “तरकारी “ क्रांति की ..

मंगलवार, 11 जून 2013

कभी पतझर है कभी सावन है,
ये आता जाता मौसम है,
जीवन सुख -दुःख का संगम है,
ज़िन्दगी की कहानी भी कुछ खास है,
यहाँ किसीको आने वाले पल से, तो,
किसी को गुज़रने हुए पल से आस है,
मिलाता नहीं यहाँ मुक़म्मल किसीको जहा,
खोना और पाना तो यहाँ आम है,
ठहराते नहीं लम्हे उम्र भर को कोई,
आज महफ़िल तो कल तन्हा मक़ाम है,
ज़िन्दगी की कहानी भी कुछ खास है।

रविवार, 14 अप्रैल 2013

आओ मिलकर कुछ अच्छा सोचें...

आओ मिलकर कुछ अच्छा सोचें, कुछ अच्छा करें.. आज की भागमभाग जिंदगी में हमारे पास स्वयम के लिए सोचने का समय तक नही है. दूसरों जैसा बमानाई के चक्कर में हम ख़ुद की पहचान को ही खोते जा रहे हैं. आइए कुछ तो अच्छा सोचें..... अपने बारे में, देश के बारे में. समाज के बारे में, रहन सहन अहाड़ा के बारे में, धर्म के बारे में... सच कहिये तो... अपनी ख़ुद की खुशी के बारे में..... अपने कर्तव्यों के बारे में.... अपने सपनों के बारे में... आओ मिलकर कुछ अच्छा सोचें, कुछ अच्छा करें.

रविवार, 10 मार्च 2013

अपने आत्मस्वरूप को पहचाने .....

            अपने आत्मस्वरूप  को  पहचाने .....
मनुष्य ने अपने बुद्धिबल से जहां एक ओर भौतिकजगत के अनेक विस्मयकारी
रहस्यों को उदघाटित किया है, वहीं उसने मनोवैज्ञानिक विश्लेषणोंके
द्वारा, अपने अन्तर्जगत की गहराइयों में भी दूर तक उतरने का उपक्रम किया
है। तथापि चेतना का रहस्य, वैज्ञानिकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना रहा
है। आज दुनिया के बुद्धिजीवियों का ,इस विषय में एकमत है,कि चेतन सत्ता
ही सृष्टि का आधारक-नियामक तत्त्व है।जो सूक्ष्मतम और एक रस व्यापक है।
चिरंतन सत्य है,अल्टीमेट पावर है। आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, अल्लाह आदि
उसी के नाम हैं। ऐसा जानते और मानते हुए भी उसके अध्ययन विश्लेषण और
प्रत्यक्षीकरण में, वैज्ञानिक बुद्धि असफल या असमर्थ रही है। वस्तुतः जो
चेतन सत्ता निर्लिप्त भाव से समस्त सृष्टि, समस्त प्राणियों और इनके
मनबुद्धि आदि में स्वयं क्रियाशील है, उसे पकड़ पाने की क्षमता,इनमें भला
आएगी कहां से? वही वही तो है, उसे देखे जाने कौन? बिहारी ने लिखा है-
जगत जनायो जेहि सकल, सो हरि जान्यो नाहिं। ज्यों आखिनु सब देखिए, आंख न देखि जाहिं॥
अपनी आंखों से अपनी ही आंखे कैसे देखी जाय? जिसे बोध होना है,वह भी वही
तो है, जो बोध का विषय है। वही दृश्य, वही दृष्टा भी है। वही ज्ञेय है,
और ज्ञाता भी वही। सृष्टि के सारे स्पंदन उसी से हैं,उसी में हैं।
आध्यात्मिक महापुरुषों ने अपने भौतिक जीवन का मूल्य देकर, इस पहेली का हल
ढूंढा और पाया कि परम चेतन अन्य पदार्थों की भांति आंखों से नहीं देखा जा
सकता। वह अनुभूति का विषय है, अनुभव स्वरुप है।
उस परम सत्ता को देखने या जानने समझने का एक ही उपाय महापुरुषों ने बताया
है कि तुम अपने में ही अपने आप को देख लो, जान लो। तुम्हारा आत्म स्वरुप
ही ज्ञेय है।
श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार- पुरुष का स्वयं को जानना ही ज्ञान है।
यही मोक्ष का स्वरुप है।
"वह परमेश्वर अपने में ही मिलता है।"

इसलिए आत्मस्वरुप को जानने की इच्छा करनी चाहिए।